समाज की वास्तविक रूप रेखा(भाग_4))
घर की दहलीज जब लाघीं तो ऐसा मंजर देखा
जो भाई आपस में प्यार से रहते थे , परिवार में खुशियां लुटाते थे
आज भाइयों के बीच बंटवारे हुऐ ,जो कभी एक थाली में साथ में खाते थे
रत्ती भर जमीन के टुकड़े के खातिर उन भाइयों को आपस में लड़ते देखा
यह आंखों देखी सच्चाई ,नहीं कोई रूपरेखा
दास प्रथा तो खत्म हुई पर आज भी क्या यह ऐसा है
जब लहू का रंग सबका समान तो ये भेदभाव फिर कैसा है
आज अमीरी को फिर गरीबी पर भारी पड़ते देखा
यह आंखों देखी सच्चाई, नहीं कोई रूपरेखा
समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती हुई सच्ची प्रस्तुति
समसामयिक परिवेश पर यथार्थ चित्रण
lekhika ne es kavita me samaj ke parivesh ke baare me bhut achha likha h very nice poem.
बहुत खूब