स्त्री की पहचान ।
ढो रही हूं एक बोझ सिर से लेकर पांव तक
खोज रही हूं एक दिशा धूप से मैं छांव तक
मीलों सा लंबा सफर जिंदगी का है मेरी
फिर भी रुकी है वहीं जहां शुरू हुई थी घड़ी
पहचान है क्या मेरी आज तक मैं ढूंढती,
अबला होकर क्या है पाया आज तक मैं सोंचती
“कौन हूं मैं ” आईने के सामने जाकर आज तक मैं पूछती
खड़े होकर चौराहे पर हर नजर को झेलती
हंसने वाली हर कली हर गली से पूछती
कब मिलेगी? राह मेरी कब मुझे पहचान मेरी
एक मील बाद भी क्यों अधूरी शान मेरी
मिल सकी क्यों नहीं अब तक पहचान मेरी ।
हर जिंदगी शुरु है मुझसे ,हर जिंदगी मुझ पर खत्म
फिर भी ढाए जा रहे हैं मुझ पर ही बरसों से सितम
ठान लिया है अब मैंने दूर तक जाऊंगी मैं
पहचान है क्या मेरी खुद ढूंढ लाऊंगी मैं
दे सकते अधिकार नहीं तो बस इतनी आजादी दो रोक सकूं खुद ही मैं खुद अपनी बर्बादी को।।
कंचन द्विवेदी
Nice ✍
धन्यवाद
Good
धन्यवाद
Nice
Thank you
Nyc
Thanks
वाह बहुत सुंदर