*हिम की एक बरसात*

ढ़ल गई है सांझ देखो,
धूमिल सा मंज़र हुआ
चांदी की चादर ओढ़ के,
हर पर्वत सो गया
चांद भी ठिठुरता सा,
बादलों में खो गया
श्वेत-श्वेत दूधिया सी,
सारी नगरी हो गई
हिम की एक बरसात से,
राहें भी कहीं खो गई
सुरमई अंधेरों में,
ये वादियां भी सो गई
मैं सुहाना सा ये मंज़र
देखती हुई जा रही
इन सुन्दर वादियों में,
मैं भी कहीं खो गई

*****✍️गीता

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Responses

  1. क्या कहें यह कविता
    शब्दावली में उच्चकोटि की है
    साथ ही उपमाएं एवं
    अलंकार भी कविता को सुंदर बना रहे हैं
    प्राकृतिक छटा मुझ जैसे कवि का मन लुभा रही है
    आपने मानवीकरण करके प्रकृति को सजीव बना दिया है
    तुकांत भी कविता को उच्च बना रहा है इस आधार पर मैं
    कह सकती हूँ कि कविता का शिल्प
    मजबूत है..

  2. कवियित्री प्रज्ञा जी की इतनी सुन्दर समीक्षा ने मेरा कवि मन मोह लिया ।जैसे मैंने ये कविता जी है, लगता है प्रज्ञा आपने भी इसे जिया है। इस सुन्दर समीक्षा हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद और बहुत बहुत आभार

    1. जी बिल्कुल,

      आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने कहा है:-

      जब आलोचक कविता
      के मूल भाव को जीता है और उसकी आत्मा तक पहुंचता है तब जाकर सही आलोचना हो पाती है..

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