हे स्वर्णरश्मि !

हे स्वर्णरश्मि !
हे दिनकर छवि !
विलम्ब न कर
आजा झटपट
निकला जाये
मेरा दमखम
प्रभु निवेदन है तुमसे विनम्र
कर जोड़ खड़ा
देखो मानव
संकुचित है प्रकृति का हर अंग-अंग
अविराम पड़े
कोहरे से तन है सिकुड़ रहा
मन सिहर रहा
प्रकृति की कोमल साँसों से
एक बर्फ का गोला
पिघल रहा
है दिनकर तपस
अब हुआ विलम्ब
कांपे धरती का अंग-अंग
हे स्वर्णरश्मि !
आजा झटपट
पिघला दे तू सारे हिम खण्ड !!

काव्यगत सौन्दर्य:-

यह कविता सूर्यातप के लौकिक ओज पर लिखी गई है
इसमें कवि सर्दी से पीड़ित जीव-जन्तु तथा प्रकृति के हर कण को सूर्य की किरणों से प्रकाशित करना चाहता है
उसे हर ओर ठण्ड से कराहते प्राणी नजर आ रहे हैं यहाँ तक निर्जीव वस्तुएं भी वह सूर्य से आग्रह कर रहा है कि वह अविलम्ब निकले और अपनी गर्मी से प्रकृति का कष्ट हरे….

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