क्या तुम अब भी वैसे ही जीते हो?

July 23, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

(जब किसी परिवार का एक बेटा शहीद हो जाता है और चंद सालों बाद सारी दुनिया उसके परिवार के दुखों को भुला देती है,

उस समय उसके घर के दरवाजे से गुजरती पुरानी हवाये जो उस घर को हमेशा खेलते,मुश्कुरते देखती थी,अब उस परिवार को विकट परिस्थिति में देखकर उस परिवार के हर सदस्य से कैसे-कैसे सवाल करती है):-

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काफ़ी दिनों बाद लौटा फिर उस गली से,
जहाँ खुशियों का एक परिवार रहता था।
अब यहां तो शान्ति का कहर बरस रहा है
जहाँ से कभी शोर का शहर गुजरता था।
आखिर पूछ बैठा वहाँ के सन्नाटों से,
ये घुटन की घुट रोज कैसे पीते हो,
क्या तुम अब भी वैसे ही जीते हो?

(घर आसपास में परिस्थितियों से सवाल:-)

बदल चुकी है हवा की रूखे,
मौसम लग रहे सूखे-सूखे,
भरी दुपहरी अंधियारों का दस्तक,
खुशियां झुकाए खड़ी है मस्तक,
यादों के घेरे में,दर-दर फिरते हो,
क्या तुम अब भी वैसे ही जीते हो?

(पत्नी से सवाल)

हृदय में हुआ विलापों का अधिगम,
चक्षु बना मेघो का संगम,
होंठ कर रहे करुण सवाल,
जी हर पल हो रहा बेहाल,
ये भयानक कारावास कैसे सहते हो।
क्या तुम अब भी वैसे ही जीते हो?

(पिता से सवाल)

गालों पर नही अब हंसी की दरारें,
मन खोया किसी समुद्र किनारे,
आंखों में रहती है आंसू की बूंदे,
आवाजें रहती रुंधे-रुंधे,
ऊपर से उजड़े,अंदर से रीते हो।
क्या तुम अब भी वैसे ही जीते हो?

(माँ से सवाल)

विशाल आँचल है सुना सुना,
ममता बना बिलखता नमूना,
सुनी गोंद के उजड़े आंगन में,
स्तन्यकाल के साधन में,
बुढापे के सपनों को रोज-रोज घिसते हो।
क्या तुम अब भी वैसे ही जीते हो?

(बहन से सवाल)

बैठे-बैठे बस रोते जाना,
चहचहाने के लिए खोजना बहाना,
बाल खिंचने पर चिल्लाना,
रूठ कर झूठे मन्नते करवाना,
पुराने झगड़ो को फिर भी खिंचते हो।
क्या तुम अब भी वैसे ही जीते हो?

(भाई से सवाल)

गली मोहल्ले के गुल्ली डंडे,
लगते है सब अब गला के फंदे,
कमरे में फैली रहती है उदासी,
मन खोज लेती जीने की तलाशी,
जैसे कि सारे गम कल ही बीते हो।
क्या तुम अब भी वैसे ही जीते हो?

मैं हर बात पर रूठ जाता हूं

July 23, 2019 in मुक्तक

जरा सी बात में टूट जाता हूं ,
गुस्से से आकर फुट जाता हूँ।
लोग समझते है आदत है मेरी
मैं हर बात पर रुठ जाता हूँ।

हृदय पर हल्की घाट होती है,
बिना बात की बात होती है।
बढ़ जाता है द्वेष का किस्सा,
फिर मन मे खुराफात होती है।।

गलतफहमी धीरे से बढ़ जाती है।
गुरुर दिमाग में गढ़ जाती है।
मन मे बनती है ख्याली पुलाव,
कुछ और ब्यथा बढ़ जाती है।।

बुराई का मैं सरताज नही हूँ।
बुझदिलों का आवाज नही हूँ।
प्रलयकारी होता है संबंध टूटना,
झूठे रिश्तों का मोहताज नही हूँ।।

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