Praduman Amit
(लेख) नारी
December 8, 2020 in Other
आज नारी के पास क्या नहीं है। फिर भी पुरुष उसे अपनों से कमजोर ही समझ रहे है।जबकि,आज हमारी सरकार नारी के प्रति तरह तरह के शिक्षा दे कर पुरुष के मुकाबले में खड़ा करने का प्रयास कर रही है। यहाँ तक कि नारी प्रधान कई फिल्में भी बनी। अनेक साहित्यकार कलमें भी चलायी। सरकार नारी को नौकरी में आरक्षण भी दिया। नारी बखूबी मेहनत करके आई पी एस, जिला कलेक्टर, प्रोफेसर, पायलट व डाक्टर भी बन कर ज़माने को दिखा दी। फिर भी नारी को सही हक़ आज तक समाज में नहीं मिला। बलात्कार जैसे घीनौने हरकतें आज भी हो रहे है। नारी के इतिहास पर यदि हम गौर करें तो युगों युगों तक नारी पुरुष के अधीन ही रही है। इसका प्रमाण हम रामायण व महाभारत से ले सकते है। रामायण में एक बार रावण मंदोदरी से कहता है “ढोल शूद्र पशु नारी। यह सब है ताजन के अधिकारी”।। यह कथन इस युग के लिए सोचनीय है। महाभारत में दुर्योधन द्रोपदी को भरी सभा में वस्त्र हरण तक करवा दिया। इस तरह के कई उदाहरण हमारे ग्रंथ में देखने को मिल ही जाते है। आज भी हम पुराने ग्रंथ के अनुसार ही चलने का प्रयास करते है। नारी को कहीं भी उच्च स्थान नहीं मिला । मिला भी है तो भी आज नारी सुरक्षित क्यों नहीं है? यह हमारे देश की दुर्भाग्य है जो ,नारी पुरुष के संग कदम पे कदम मिला कर चलने के बावजूद भी उसे हवस के नजरों से आज भी देखा जा रहा है।
बेटी पढाओ अपनी शान बढाओ
December 7, 2020 in लघुकथा
कोमल हमेशा अपने माता पिता से डाट फटकार सुना करती थी। जबकि कोमल आठवीं कक्षा के छात्रा थी। पढ़ने लिखने में अपनी क्लास में अव्वल थी। सभी शिक्षक उसे मानते थे।प्रतियोगिता में बराबर बढ़ चढ़ कर हिस्सा भी लेती थी। बेशक वो समान्य ज्ञान हो या किसी विषय पर भाषण देना हो तो सबसे पहले कोमल का ही नाम आता था। इतनी गुणवान होते हुए भी माता पिता उसे हमेशा उच्च नजर से कभी देखा ही नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि, हमेशा कोमल के माता पिता बेटी को पराई घर की बेटी ही समझे। उन लोगों का यही सोच था कि बेटी से कहीं माता पिता के नाम रौशन हुआ है आज तक ? शायद इसलिए कोमल एक ही कक्षा में दो बार फेल भी कर गयी थी। सभी शिक्षक आश्चर्य में पर गये। फेल होने के कारण सभी शिक्षक पूछने लगे। तभी कोमल अपनी दास्तां उपस्थित शिक्षकगण के बीच बताती है — मैं हमेशा अपने माता पिता के आज्ञा मानती आयी हूँ। मैने कभी उनलोगों को निराश नहीं किया है। मै बहुत ही कठिनाई से आठवीं कक्षा तक पढी़ हूँ। मेरे अभिभावक के यह सोच है कि लड़की को ज्यादा पढ़ाने लिखाने से क्या फायदा ? आखिर चूल्हे चौके के ही काम करेगी। मेरा एक भाई है कमल जो,पांचवीं कक्षा के छात्र है। उसको पढाने लिए घर पर दो दो शिक्षक आते है ।मैने आज तक किसी भी शिक्षक से घर पर पढ़ी ही नहीं। वो तो अपनी सखी सहेली से नोट्स वगैरा ले आती हूँ। उस से ही परीक्षा की तैयारी कर लेती हूँ। लाख कहने पर भी पिताजी किताब ला के देते ही नहीं। लाड प्यार होता है क्या मैने आज तक जाना ही नहीं। मै अपने माता पिता के दोष नहीं दे रही हूँ। दोष दे रही हूँ अपनी तकदीर को । जो इतनी शिष्टाचार के पालन करते हुए भी अपने माता पिता के आँखों के तारा नहीं बन सकी। सभी शिक्षक दु:ख व्यक्त किए। कोमल की फ़रियाद किसी भी तरह शिक्षामंत्री के पास पहुँच गयी। उसे पढ़ने लिखने के लिए पैसे भी मिलने लगे। वह जी तोड़ मेहनत करना चाहती थी। मगर घर के काम से उसे फुरसत नहीं मिलता था। फिर भी अपनी मेहनत जारी ही रखी। समय का पहिया घुमता गया। वही कोमल दसवीं कक्षा में स्टेट लेवल पर प्रथम स्थान प्राप्त करके अपने माता पिता के नाम रौशन कर दिया। अखबारों में, टी. वी में हर जगह उसके माता पिता के नाम के साथ कोमल के नाम आता रहा। बेटी की कामयाबी देख कर कोमल के माता पिता कोमल को गले लगा लेते है। फूट फूट कर खुशी की आंसू बहाते हुए अपने समाज में ही चीख चीख कर दूसरों को यही कहते है बेटी पढाओ अपनी शान बढ़ाओ।
आठवां अजूबा
December 4, 2020 in लघुकथा
गुवाहाटी शहर कर्फ्यू से ग्रस्त था। जहां तहां शोर मची थी। रास्ते पे इन्सान तो क्या जानवर तक चलने में कतराते थे। सारा शहर भयाक्रांत की आगोश में समाया हुआ था। इतने में किसी औरत की आवाज़ मेरी कानो में टकराई- मेरे बच्चे को बचा लो। बुखार से तप रहा है। अरे कोई तो जाओ किसी डाक्टर को बुला लाओ। उस औरत की आवाज़ में करुणा थी। मेरा दिल पसीज़ गया। मै जैसे ही घर का दरवाजा खोलना चाहा वैसे ही मेरी पत्नी रोक कर कहने लगी “आपका दिमाग सही है? सारा शहर कर्फ्यू से ग्रस्त है। जहां तहां दंगे फसाद हो रहे है। उस पे रात के बारह बज रहे है।आप आठवां अजूबा बन कर उस औरत के बच्चे को बचाने चले है। अगर आप को कुछ हो गया तो हमारे दो बच्चों का क्या होगा। आपने यह सोचा है? पुनः मेरी कानों में उसी औरत की करुणा भरी फ़रियाद सुनाई पड़ी। मैं अपनी पत्नी को एक तरफ करते हुए बाहर निकल पड़ा। पास जा कर उस औरत को कहा – मैं डाक्टर को लाने जा रहा हूँ। आप बच्चे को ख्याल रखिए। मैं वहाँ से पागल के भांति दौड़ने लगा। कुछ दूर दौड़ने के बाद यह ख्याल आया कि क्या कोई डाक्टर इतनी रात को दंगा फसाद के माहौल में अपनी जान हथेली पर रख कर आएगा ? फिर यह ख्याल आया कि क्यों न समाज सेवक अरुण जी के पास जाउँ। वह तो बहुत बड़े आदमी है। फिर मैं अरुण जी के घर के तरफ दौड़ पड़ा। वहाँ पहुँचने के बाद मैं जो देखा बहुत शर्म में पड़ गया। वह पास के ही लोगों के संग प्रेम रसपान में मगन थे। मै मायूस हो कर वापस आ रहा था। अचानक पुलिस की गाडी आ कर मेरे सामने रुक गई। सिपाही मुझ पर ऐसे लपके जैसे मैं मोस्ट वानटेड हूँ। दारोग़ा साहेब कहे – क्यों बे। कहाँ जा रहा है? लाला के काले धन कहाँ छुपा रखा है “?उस दारोग़ा की बात मैं समझ नहीं पाया। मैं कहा -साहेब। एक औरत के मासूम बच्चा बहुत बीमार है। मैं डाक्टर को बुलाने निकला हूँ। यदि मैं समय पर डाक्टर को वहाँ नहीं ले गया तो वह बच्चा मर जाएगा। मेरी बात को दारोग़ा ने झूठ समझा। मुझे गाडी में बैठा कर ऐसे ले गया जैसे साजन चले ससुराल।
बेटी प्रज्ञा
December 3, 2020 in लघुकथा
रोहन काका फोर्थ ग्रेड की नौकरी करके अपने दो बेटे प्रदीप ,प्रताप एवं बेटी प्रज्ञा को पढ़ाया लिखाया। प्रज्ञा को ग्रैजुएट करने के बाद ही हाथ पीले कर दिए। प्रदीप व प्रताप को यू पी सी की तैयारी भी करवाए। जल्द ही उन दोनों को अच्छी नौकरी भी मिल गई और रोहन काका को रीटायरमेंट।माँ गायत्री हमेशा चूल्हा चौका में ही व्यस्त रहती थी। रोहन काका दोनों बेटों की शादी भी धूमधाम से कर दिया। ज़माने के अनुसार दोनों बहूओं को प्रदीप व
प्रताप के यहाँ मुंबई शहर भेज दिया। दोनों पति पत्नी के खर्च हर महीने आने भी लगा।समय यों ही गुज़रता गया।शहर में जा कर दोनों बहूएं अपने अपने पति पर धीरे धीरे हावी हो गई। शहर के चमक धमक व दौलत में वे इतने लीन हो गये कि, वे सभी यह भी भूल गये कि घर में बूढ़े माँ बाप भी है। दिन गुजर गए महीने गुजर गए साल गुजर गए। मगर किसी ने माँ बाप के हाल तक जानने का कभी प्रयास तक नहीं किया। मगर, हाँ बेटी प्रज्ञा व दामाद अभिषेक कभी कभार आ जाया करता था। माँ बाप के प्रति भाइयों की रवैया प्रज्ञा को अच्छा नहीं लगता था। रोहन काका के पेंशन से ही घर का खर्च चलने लगा। अचानक एक दिन शाम को रोहन काका के सिन्हें में तेज दर्द हुआ। वह विस्तर पर ऐसे गिरे कि फिर वह उठ नहीं पाए। माँ गायत्री चीख चीख कर रोने लगी। मोहल्ले के सारे लोग इकट्ठे हो गए। उसी समय बेटी प्रज्ञा को फोन से सूचित किया गया। फिर प्रदीप, प्रताप को भी सूचित किया गया। सभी सुबह तक पहुंच गये। बड़े ही दु:ख के साथ रोहन काका को अंतिम संस्कार कर दिया गया। हिन्दू रीति रिवाज से क्रिया क्रम भी हो गया। प्रज्ञा अपने दोनों भाइयों के बीच माँ को रखने का प्रस्ताव रखी। मगर किसी ने माँ को अपने पास रखना नहीं चाह रहा था। बेचारी बूढ़ी माँ कभी बड़े बेटे पर देखती थी तो कभी छोटे बेटे पर देखती थी। मगर किसी बेटे का दिल ,माँ के प्रति नहीं पसीजा।माँ मुंह पर आंचल रख कर रोने लगी। वह सोचने लगी कि जिस संतान को हमने नौ महीने कोख में रख कर हर तरह के दर्द सहती रही। आज वही बेटा अपनी माँ की दर्द तक बांटने को तैयार नहीं है। कुछ क्षण पश्चात गायत्री ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया। बेटी प्रज्ञा अपने पति अभिषेक से इजाज़त ले कर माँ को हमेशा के लिए अपने पास(ससुराल) में रखने का फैसला अपने भाइयों को सुना दिया। गायत्री अपनी बेटी के यहाँ नहीं जाना चाहती थी । वह समाज के ताने से बचना चाहती थी । अभिषेक सास माँ के पांव छू कर कहता है कि – मेरी माँ तो बचपन में ही मुझे छोड़ कर चली गई। मै उनको कभी देखा ही नहीं। यदि आप मेरे पास रहेंगी तो मैं समझूंगा कि मैने पुनः अपनी माँ को पा लिया। माँ गायत्री दामाद जी के यह वचन सुन कर रोने लगी। गायत्री आँसू पोछती हुई कही कि पेंशन के पैसे हर महीने जो मुझे मिल रहे है वह आपको लेने पड़ेंगे। उपर वाले को भी तो मुंह दिखाना है। अभिषेक – जैसी आपकी मर्जी। प्रज्ञा अपनी माँ को लेकर हमेशा के लिए अभिषेक के संग अपने घर चली जाती है।प्रदीप व प्रताप प्रज्ञा को देखता ही रह जाता है।
कैसे होते है ऐसे माँ बाप
December 1, 2020 in लघुकथा
मैं उस वक्त हैदराबाद में होटल मैनेजमेंट कर रहा था। एक गरीब माता पिता दो साल की बच्ची को ले कर आया और मुझ से कहा – इस बच्ची के दूध के लिए मेरे पास पैसे नहीं है। दस रुपये है तो दे दीजिए। मुझे दया आ गयी। क्योंकि वह बच्ची मुझे बहुत ही गौर से देख रही थी। देखने में भी सुंदर व मासूम लग रही थी। मै उसे पाँच सौ रुपये देते हुए कहा – बच्ची को दूध पिलाना और आप लोग भी कुछ खा लेना। दो घंटे बाद मै अपने कमरे से निकल कर बाहर निकला ही था कि, अचानक पुन: उन लोगों पर नजर पड़ी। दोनों पति पत्नी पास के ही एक सिंधी के दूकान पर बैठ कर सिंधी पी रहे थे। वह बच्ची एक तरफ बैठ कर रो रही थी। शायद उसे भूख लगी हुई थी। वह दोनों नशे में ख्याली पुलाव पकाने में मस्त थे। मैं यह देख कर सोचने लगा – इस नादान बच्ची की भविष्य आगे की ओर क्या होगी ? जिनके माँ बाप हीअपनी संतान को मोहरा बना कर भीख मांगते है, और उस पैसो को अपनी अय्याशी में खर्च कर देते है। वह बच्ची बार बार अपने माँ बाप के पास जाती थी। मगर उन दोनों को इतना होश कहाँ था जो, उसे गोद में भी उठा सके। एक तरफ बाप लूढ़क रहा था तो दूसरी तरफ उस बच्ची की माँ।
मंजिल की खोज एक माँ को
November 28, 2020 in लघुकथा
एक बूढ़ी औरत, कमर झुकी हुई, एक हाथ में लाठी, दूसरे हाथ में एक छोटी सी गठरी लिए गाँव के पगडंडी पकड़ कर जा रही थी। सिन्हे में गम, आँखों में आंसू को अपना हम सफर मान कर बढ़ती जा रही थी। गाँव से काफी दूर निकलने के बाद रास्ते में एक नयी नवेली दुल्हन को देखी। वह पहली बार ससुराल बसने के लिए जा रही थी। उसे गौर से बूढ़ी औरत देखने लगी। उसे देख कर अपनी बीती कहानी याद आने लगी। जब वह भी किसी की दुल्हन बन कर अपनी ससुराल गयी थी। उस दिन चारो तरफ रंग बिरंगी लाईट से घर सजी हुयी थी। गौतम (बूढ़ी औरत के पति)बार बार उसकी सुंदरता की तारीफ़ करता था। समय का पहिया यों ही घूमता गया। नौ साल बाद जब वह माँ बनी तब गौतम एक दुर्घटना में मारा गया। सधारण परिवार में रहने के कारण उसे काफी मेहनत करनी पड़ी थी। राज को पढ़ाने लिखाने के लिए। उसकी मेहनत तब ही रंग लाई जब राज को एक अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई। जब खुशी कदम चूमने लगी तब राज को विवाह करा दिया गया। घर में पत्नी आने के बाद धीरे धीरे राज के मिजाज भी बदलने लगा। पत्नी भी सास की सेवा में कमी कर दी। वह समझ चुकी थी, शायद अब मेरा गुजारा मुश्किल हो जाएगा। फिर भी मन मार कर रहने लगी। समय अपनी रफ्तार में बढ़ता गया। अब राज भी बाप बन गया था । वह अपने बच्चे व पत्नी में इतना घुल मिल गया कि, वह अपनी माँ तक को भूल गया। कभी कभी रात में भूखे पेट ही सो जाती थी। बेटे बहू तो होटल से खा कर रात में घर लौटते थे। एक दिन की बात है। वह अपने पोते को आंगन में खेला रही थी कि, अचानक बच्चा फर्श पर मुंह के बल गिर पड़ा। बहू दौड़ कर आयी। उसे गाली गलौज करती हुई उस माँ के गालों पे दो चार थप्पड जमाती हुई कही “कलमुंही चल, निकल मेरे घर से “।वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई। जब शाम को राज घर आया तब सारी गलती माँ को ठहरा कर उसे डांट सुनवा दी। अब वह माँ सोचने लगी शायद अब मेरा गुजारा इस घर में नहीं होगा। बस यही सोच कर सुबह के सूरज निकलने से पहले घर को हमेशा के लिए छोड़ कर गाँव की टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी को पकड़ ली। अचानक किसी ने कहा “बूढ़ी माई कहाँ खो गयी हो “।वह अपनी अतीत से बाहर निकली। फिर वहाँ से आगे की ओर चल पड़ी।
क़हर
November 27, 2020 in मुक्तक
एक तरफ कर्ज तो दूसरी तरफ महामारी करोना।
कैसे जिये हम यही कहता है आज सारा ज़माना।।
कमाते है हम तब ही दो वक्त की रोटी मिलती है।
न काम है न पैसा है अगर है तो करोना का डर है।।
स्कूल कालेज सब बंद हुए शिक्षक विद्यार्थी मारे गये।
अनेक बच्चों के भविष्य बन कर भी आज बिगड़ गए।।
करोना और गरीबी
November 26, 2020 in लघुकथा
चारो तरफ , करोना का क़हर था। सभी लोग भयाक्रांत की आगोश में समाया हुआ था। किसी को किसी से वास्ता नहीं था। लोग एक दूसरे के नजदीक जाने में भी कतराते थे। उसी समय एक दस वर्ष की गीता रोज की तरह रास्ते के फुटपाथ पर एक मैली चादर बिछा कर भीख मांगने बैठ गई। लोग आते जाते रहे मगर उस मासूम से दो गज़ की दूरी बना कर चले जाते थे। सुबह से शाम हो गई लेकिन, किसी ने उसे एक रुपये तक नहीं दिया। वह मायूस हो कर रास्ते के एक तरफ जा कर एक पेड़ के नीचे बैठ गई। आने जाने वाले को बड़ी गौर से निहारती थी। इसलिए कि, किसी को मुझ पर शायद तरस आ जाए ताकि कोई एक रुपया भी दे दे। जब आश निराश में बदलने लगी तब उसे नींद आने लगी। जब रात के ग्यारह बजी तब उसे भूख सताने लगी। वह करे तो क्या करे। कुछ देर बाद उसे आंख लगने ही वाली थीं कि, उसके कानों में शादी के बाजे सुनाई पड़ी। वह मासूम उसी बाराती के संग चल पड़ी। शायद वहाँ उसे खाने को कुछ मिल जाए। जब बारात अपनी जगह पर पहुँची तब उसी बाराती के संग गीता भी अंदर में प्रवेश करना चाही। मगर, उसे अंदर जाने नहीं दिया। क्योंकि उसके कपड़े गंदे थे। उसे करोना कह कर बाहर चले जाने को कहा। वह मासूम मायूस हो कर गेट के बाहर खड़ी हो गई। अंदर अमीरों की खान पान चलता रहा। वह मासूम सभी को देखती रही। वे सभी अन्न को आधा खा कर कूड़े दान में डालता रहा। दूसरे तरफ कोई भूखा बड़ी गौर से देखता रहा। वह कूड़े दान के नजदीक जा कर अमीरों के जूठन से ही अपनी पेट की आग बुझाई। फिर उसी जगह पहुँच गई जिस जगह से उठ कर अमीरों के बाराती में शामिल हुयी थी। जब सुबह उसे आँख खुली तब उसे सिर में दर्द हो रहा था। वह एक डाक्टर के पास पहुँची। डाक्टर उसे बिना टेंपरेचर जांचे ही उसे यह कह दिया – लगता है तुम करोना के शिकार हो गई हो। इतना सुन कर वहाँ से चल पड़ी। रास्ते में सोचने लगी – क्या सही में मैं करोना के शिकार हो गई हूँ? अगर शिकार हो गई हूँ तो करोना ही मेरे लिए भगवान है। कम से कम इस निर्दयी संसार से दूर तो हो जाउँगी।
गंगा काशी
November 11, 2020 in मुक्तक
माँ बाप को दु:ख न देना
उसने ही तुम्हें चलना सिखाया
जिस पैर पर चल कर
तुमने कामयाबी हासिल की
उसी पैर पर उसने कभी
अपनी जान न्योछावर किया ।
हंसना सिखाया बोलना सिखाया
आज तुम हो गए इतने बड़े कि
डांट कर बोलती बंद कर देते हो
उसे अपनो से कमजोर समझ के।
तीर्थ कर के तीर्थराज बनते हो
अरे नादान सारे तीर्थस्थान तो
तेरे घर में विराजमान है
अपनी काली पट्टी तो खोल
देख गंगा काशी तेरे घर में है।
वफा के बदले
November 11, 2020 in मुक्तक
खट्टी मीठी यादों से आज
उस बेवफा की तस्वीर बनाई।
दिल में आ कर देखिए
दूर हो गया आज सनम हरजाई।।
अक्सर मैं सुना करता था
प्यार में रब बसता है।
गर रब बसता है तो मैने
मुहब्बत में धोखा क्यों खाई।।
दीदार
November 9, 2020 in शेर-ओ-शायरी
अब चलें काफी रात हो गई ।
आपसे मेरी दो बातें हो गई।।
वक्त और ठंड के तकाजा है।
चलो आप से दीदार तो हो गई।।
गरीब की दीवाली
November 8, 2020 in मुक्तक
गरीब के घर में झांकीए
कैसे मनाते है निर्धन दीवाली।
मन में उमंगों की पटाखे फोर कर
निर्धन ऐसे मनाते है दीवाली ।।
दीया है बाती है मगर तेल नहीं
लाला भी आज उधार देगा नहीं।
मन में ख्वाईशें तो थी अनेक
चलो यह वर्ष न सही अगले वर्ष ही सही।।
मुनिया की मम्मी मुनिया के
पुरानी कपड़े धो देना क्योंकि,।
आ गयी है इस वर्ष की दीवाली।।
एक ही दीया
November 8, 2020 in मुक्तक
हम सब दीप तो जलायेंगे,
बाहरी अंधेर को दूर करने के लिए।
मगर हम वो दीप कब जलायेंगे
मन में छिपे अंधेर को दूर करने के लिए।।
हम हर वर्ष बड़ी उल्लास के साथ
घर आंगन में जलाते है अनेक दीया।
छल कपट के छाती पर कब हम
जलायेंगे स्वच्छता के “एक ही दीया” ??।।
वाह !! कहीं कहीं…..
November 7, 2020 in मुक्तक
कहीं दीप जले तो कहीं ,
गरीब के घर में चूल्हा न जले।
हम खुशियाँ मनाते रहे और वो,
अंधेरे में माचिस खोजते रहे।।
कहीं दीपावली की धूम तो कहीं
पापी पेट में भूख की शहनाई।
गगन में देखो रंग बिरंगी पटाखे
वाह रे दुनिया क्या मस्ती है छाई ।।
गरीब के लाल
November 7, 2020 in मुक्तक
नये कपड़े, नयी उमंग,
पटाखे और डिब्बे की मिठाई ।
गरीबी में पल रहे लाल के
किस्मत में कहाँ है भाई ।।
दीप जला कर खेल कूद कर।
अपनी शौक को खुद में ही,
कभी सिमटते हुए देखा है भाई?।।
क्या से क्या हो गया
November 6, 2020 in मुक्तक
हम दीवाली क्या मनाए
दीवाली तो करोना ले गए।
थी जुस्तजू मुझे भी मगर
साल २०२० हमें बर्बाद कर गए।।
हमे क्या पता था देश में
कभी ऐसे भी दिन आयेंगे।
बुरे वक्त पे रिश्ते नाते भी
अपनो के साय से दूर भागेंगे।।
पुरानी दास्तां
October 28, 2020 in शेर-ओ-शायरी
एक दिल कहता है, फिर एक मर्तबा किसी से इश्क़ कर।
दूसरा दिल कहता है, ए नादान पुरानी दास्तां से तो डर।।
महफूज
October 28, 2020 in शेर-ओ-शायरी
चल घटा जो हुआ इश्क़ में, शायद अच्छा ही हुआ।
कम से कम नादान दिल, तीर ए नजर से तो बचा।।
बेवजह
October 28, 2020 in शेर-ओ-शायरी
मुहब्बत में मुकाम तो मिलता है मुकद्दर वालों को।
हम बेवजह ही आज़माए अपनी सोए मुकद्दर को।।
जैसी करनी वैसी भरनी
October 27, 2020 in लघुकथा
एक बहू अपनी सास को हमेशा भला बुरा कहा करती थी। सास चुपचाप रह जाती थी। क्योंकि उसका पति नहीं था। एक बेटा भी था तो वह बीवी के गुलाम बन कर ऐश की ज़िन्दगी गुजार रहा था। समय के पहिया यों ही घूमता गया। सास बेचारी पानी पानी कह कर मर गयी। मगर बहू ने पानी तक नहीं दिया। बहू व बेटे दोनों मिल कर खूब दानपुन किया। ताकि माँ की आत्मा को शांति मिल सके। और उसे किसी भी काम में बरकत हो। मगर ऐसा नहीं हुआ। दिनोदिन कर्ज के तले में दोनों दबते चले गए। घर में अशांति का माहौल छा गया। वह अपने पति को बाहर भेज दिया । ताकि कर्ज से छुटकारा मिल सके। मगर इसका परिणाम कुछ उल्टा ही हुआ। उसका पति शहर जा कर शराब व शबाब में ऐसा डूबा कि वो हमेशा के लिए उसका साथ छोड़ दिया। वह अभागन बहू इस संसार में आज भी दुख के दलदल में दबी हुई है। उसे सहारा देने वाला कोई नहीं है। औलाद तो सात थे। मगर सब अपने अपने ससुराल में है। कोई औलाद उसे देखने तक नहीं आते। जबकि आज भी वह औरत हर साल गंगा नहा रही है। उसे क्या पता कि जब घर में गंगा थी तो उसने कभी सच्चे मन से उसमें डुबकी लगाई ही नहीं। उस औरत को आज एहसास हो रहा है कि मैने अपनी सास को कभी सासु माँ समझी ही नहीं ।वह आज भी अपनी औलाद से सुख पाने की उम्मीद लगाए बैठी है।
हंसते हंसते
October 27, 2020 in शेर-ओ-शायरी
कोई उसे जान से भी ज्यादा चाहा था किसी बेवफा को।
उसने पल में ही तोड़ दिए सपने हंसते हंसते किसी को।।
मुझे यह गम नहीं
October 27, 2020 in शेर-ओ-शायरी
ए मेरे दोस्त मुझे यह गम नहीं कि तुम मेरे न हो सके,
गम तो इस बात की है कि तुम मुझे कभी समझ न सके।
कहाँ गया वो ? (रहस्य रोमांच) भाग — २
October 27, 2020 in लघुकथा
आपने भाग १ में पढ़ा – (राम उसे देख कर बुरी तरह से डर गया। वह बांध के नीचे से रास्ते के तरफ आ रहा है। आखिर वह राम से क्या चाहता है। जबकि राम अपनी कंठ को अपनी ही थूक से बार बार भीगो रहा था)अब आगे
वह अधेर उम्र की व्यक्ति राम से दस गज की दूरी बना कर बीच रास्ते पर खड़ा हो गया। कुछ देर बाद उसने कहा “मुझे प्रतिदिन इसी समय एक लीटर दूध चाहिए। क्या तुम दोगे” ?राम, जबाब में सिर हिलाया। — “मगर याद रहे दूध में किसी तरह की मिलावट नहीं होनी चाहिए ” ।राम उसकी भारी आवाज़ से पहले ही डर चूका था। उसकी रोंगटे काँटे के भांति खड़ा ही रहा। वह फिर सिर हिलाया ।इतना कह कर वह पुन: धीरे धीरे बांध के नीचे उतरने लगा। देखते ही देखते वह गायब हो गया। राम अपनी जान ले कर वहाँ से इतनी जोर साईकिल चलाया कि घर आ कर ही चैन की सांस ले पाया। उनकी पत्नी बेला के पूछने पर यह कह कर राम ने टाल दिया कि मेरे सिर में दर्द है। बेला के लाख कहने पर तब कहीं दो तीन निवाला उसने मुँह में डाला। चुपचाप बिछावन पर लेट गया। रात भर वही डरावनी आवाज उसकी कानो में गूंजती रही। वह प्रतिदिन की तरह सुबह उठा और गाय भैंस की सेवा में जुट गया । फिर शाम के चार बजे दूध ले कर बाजार चल दिया। अरे हाँ- उस रहस्यमयी के लिए अलग से एक लीटर दूध भी ले लिया था। दूध बेचते बेचते राम को बाजार में फिर देर हो गयी। डरते डरते फिर वही रास्ता से घर लौट रहा था। दूसरा रास्ता था ही नहीं जो, वह अपना घर जा सके। । मन में तरह तरह के डरावनी ख्याल उसके मष्तिस्क को झकोर कर रख देता था। फिर वही कल वाली डरावनी व सुनसान रात थी। रास्ते पर एक राही तक नहीं था। । राम जब बांध पर पहुंचा तब उसकी नजर वही अधेर उम्र की व्यक्ति पर पड़ी। वह राम से दस गज की दूरी पर दूध लेने के लिए एक कमंडल ले कर बीच रास्ते पे खड़ा था।
शेष अगले अंक में
कहाँ गया वो ? (रहस्य रोमांच)
October 26, 2020 in लघुकथा
छपरा जिला के सांई गाँव में ग्वालों की घनी आवादी थी। वहाँ के लोग गाय भैंस पाल कर ही अपना घर परिवार चलाते थे। उसी गाँव में राम नाम का एक ग्वाला था। वह प्रतिदिन शाम के समय बाजार में दूध बेचने जाया करता था। कभी कभार घर लौटने में देर हो जाया करता था। उस रात भी उसे देर हो चुकी थी। रात के यही कोई दस या सवा दस का वक्त था। वह अपनी साईकिल से मस्ती में आ रहा था। रास्ता सुनसान की आगोश में सो चुकी थी। रास्ते में एक राही भी उसे दिखाई नहीं दिया। फिर भी राम अपनी धुन में मंजिल तय करने मे मशगूल था। पूस की रात थी। ठंड काफी बढ़ चुका था। उस पर पछुआ के ब्यार राम के जिस्म को कंपा दिया करता था। फिर भी पापी पेट का सवाल था। दो किलोमीटर की दूरी पे कहीं कहीं बिजली के खंबे लगे हुए थे। परंतु बिजली नदारद थी। इसलिए राम के हाथ में दो सेल का एक 🔦 था। टॉर्च जलाते हुए बांध पर तेजी से जा रहा था। अचानक किसी की आवाज़ उसके कानो में टकराई … ” ए जरा रुको”। राम चारो तरफ टॉर्च जला कर देखा। मगर उसे कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया। राम हिम्मत बांध कर जैसे ही आगे बढ़ने वाला था कि अचानक फिर वही आवाज ” ए जरा रुको “।राम पुन: अपनी टॉर्च चारो तरफ घुमाया। अचानक राम की नज़र एक अधेर उम्र की व्यक्ति पर पड़ी। वह लाठी के सहारे बांध के नीचे से उपर की ओर रास्ते के तरफ आ रहा था।
शेष अगले अंक में
थी जुस्तजू दिल को मगर…
October 26, 2020 in शेर-ओ-शायरी
रास्ते के पत्थर समझ के, ठोकर मार कर चले गए वो।
हम किनारे पे खड़े रहे, किसी के हो कर गुजर गए वो।।
हाय रे किस्मत
October 26, 2020 in शेर-ओ-शायरी
खुद को जला के हम, अपनी प्यास कहाँ बुझा पाए।
समंदर भी मुझे देख कर , अपनी धारा बदलती जाए ।।
सच्चे मन से
October 25, 2020 in Poetry on Picture Contest
रावण जलाना ही है तो
मन में छिपे रावण को जलाओ।
गर तुम से न जले तो
सच्चे मन से श्री राम को बुलाओ।।
अधर्म पे धर्म की विजय
October 25, 2020 in Poetry on Picture Contest
जब जब धर्म
अधर्म के चंगुल में फंसा,
तब तब इस धरती पे
पुरुषोत्तम का जन्म हुआ।
अत्याचार से धरती फटी
अधर्म से नील गगन,
तभी तो दिव्य पुरुष के हाथों
अधर्मी का अंत हुआ।
बुराई पे अच्छाई की जीत तो
एक दिन होना हो था,
“ढोल शूद्र पशु नारी”
यही अधर्म के कारण
पापी का आज अंत हुआ।
सुरक्षा कवच
October 23, 2020 in शेर-ओ-शायरी
रावण जलाया तो क्या जलाया,
दिल के रावण जलाओ तो जाने ।
तुम्हारी ढकोसला षडयंत्र को हम,
अपनी सुरक्षा कवच क्यों माने।।
नीली गहराई
October 23, 2020 in शेर-ओ-शायरी
चलो इश्क़ की दरिया में कूद कर देखते है।
सुनता हूँ नीली गहराई का कोई अंत नहीं है।।
दो रास्ते
October 23, 2020 in शेर-ओ-शायरी
एक रास्ता मय़खाने की ओर
दूसरा रास्ता शबाब की ओर।
उतावला दिल किधर जाए
इधर जाए या उधर जाए।।
इश्क़ के मारा दो बेचारा
October 20, 2020 in ग़ज़ल
हम तो गिर कर भी संभल नहीं पाए
क्या करें चाहत की डोर ही कुछ ऐसी थी।
वो कहते रहे चिंगारी से कभी न खेलना
हम जान कर भी अनजान बने रहे
क्या करे हमारी तकदीर ही कुछ ऐसी थी
जब मिला मैं इश्क़ के जौहरी से — उसने कहा
अश्क़ न बहा ए मुकद्दर के फकीर आशिक़
जो हाल तेरा है वही हाल कभी मेरी भी थी।
१
October 19, 2020 in शेर-ओ-शायरी
लोग कहने है मुहब्बत किसी १ से होता है।
क्या इस युग में भी किसी १ से ही होता है।।
……. क्या तुमने कभी
October 19, 2020 in शेर-ओ-शायरी
कौन कहता है कागज के फूलो से ,
कभी खुशबू आ नहीं सकती है।
मैं कहता हूँ – क्या तुमने कभी,
कागज के फूलो पे सच्चे मन से-
महबूबा के नाम लिख कर देखा है।।
बरसात
October 19, 2020 in शेर-ओ-शायरी
जब हुई आँखों से, अश्कों की बरसात।
तब याद है मुझे,थी वो बरसात की रात।।
बेवफा से वफ़ा
October 17, 2020 in ग़ज़ल
दिल ले के वो नादान, दग़ाबाज़ी करते चले गए।
रेत में हम उनके लिए, महल बनाते चले गए।।
हमें क्या पता था, खूबसूरत समंदर की बेवफ़ाई।
हम तो समंदर की सुरत पे, एतवार करते चले गए।।
जो होना था सो तो हो गया, क्या करे “अमित ” ।
ए आँखें भी बिन सावन के ही, बरसते चले गए।।
सड़कछाप आशिक़
October 17, 2020 in शेर-ओ-शायरी
दिल फेंक आशिक़, सड़क पे अक्सर मिल ही जाते है।
गर बोलो दो मीठी बातें तो, जल्द ही मजनू बन जाते है।।
क्या से क्या हो गया
October 15, 2020 in शेर-ओ-शायरी
चारो दिशाओं में आज मतलबी इंसान बसते है।
तभी तो आज हमारे मन में नफरत ही पलते है।।
अर्शे बाद…
October 15, 2020 in शेर-ओ-शायरी
मैं दोस्तों के अंजुमन में, अर्शे बाद आया हूँ।
खुद को थाम लीजिए मैं फिर वही दिल लाया हूँ।।
जुल्म से कांपी इंसानियत
September 28, 2020 in शेर-ओ-शायरी
जब जब ज़ुल्म की जलजले इस ज़मीन पे फन फैलाया।
तब तब इन्सान की इंसानियत खून की आँसू ही रोया।।
क्या जिंदगी है
September 28, 2020 in शेर-ओ-शायरी
बचपन में खेल का तकाजा,
जवानी में मौसम के तकाजा
तो बुढ़ापे में उम्र की तकाजा ।।
जब आ जाए अंतिम घड़ी ,
उठ जाता है हम सब के जनाजा ।।
लत
September 28, 2020 in शेर-ओ-शायरी
तुम हर मर्तबा यही कहते हो, इश्क़ बुरी लत है।
चुपके चुपके दिल चुरा लेना,ए कौन सा लत है।।
पत्थर दिल
September 28, 2020 in शेर-ओ-शायरी
अश्क़ बहा के भी उस बेवफा को मैं अपना न सका।
उनको खबर थी मेरी हालत फिर भी वो बेखबर रहा।।
लेखक की गरीबी (३)
September 27, 2020 in लघुकथा
(भाग दो में आपने पढ़ा – रुपा अपने पति के पेट की आग बुझाने के लिए खुद को दिलचंद के हाथों बिकने के लिए तैयार हो जाती है। वह अपने पति के ख़ातिर इज्ज़त क्या अपनी जान तक न्यौछावर कर सकती है। दिलचंद उसकी इज्ज़त दूकान के चंद पैसों के उधार से वह खरीदना चाहता है। क्या , दिलचंद रुपा के इज्ज़त को खरीद पाता है? क्या जीवनबाबु अपनी पत्नी को दिलचंद के हाथों बेच देता है?) यह जानने के लिए अब आगे —
रुपा रोती हुई जी़वनबाबु से लिपट कर – “स्वामी । मैं टूट चुकी हूँ। मै आपको भूखे पेट कैसे सोने देती। दिलचंद से अपनी इज्जत की सौदा मैं शौक से नहीं किया। स्वामी यहाँ तक कि मैं उसके संग शर्त भी कर चुकी हूँ। जीवनबाबु – “रुपा। क्या तुम्हारा मन यह काम करने को कहता है”।रुपा जीवनबाबु को गले लगा कर — “नहीं स्वामी। मैं मर जाउंगी । मगर यह काम कभी नहीं करुंगी। शर्तें मान लेना यह तो मेरी मजबूरी थी। अपने पति के ख़ातिर ” ।जीवनबाबु — “अब कुछ नहीं हो सकता है। मेरे हिसाब से दिलचंद की शर्तें हम दोनों को मिलकर कर पुरा करना चाहिए। जरा बाहर देखो तो मुर्दे समाज गहरी नींद में सो गये है क्या”? रुपा जीवनबाबु को ऐसे देख रही थी जैसे वह आठवां अजूबा हो। रुपा बाहर झाँक कर देखी। उस समय सारे लोग नींद की आगोश में समा चुके थे। जीवनबाबु अपनी रुपा को ले कर घर से निकल पड़े। रुपा हर बार अपने पति के तरफ देख कर रो पड़ती थी। जीवनबाबु बिंदास दिलचंद बनिया के दूकान के तरफ बढ़ते जा रहे थे। कुछ क्षण पश्चात दोनो दिलचंद बनिया के दूकान पर पहुंच गए। जीवनबाबु रुपा को इशारा किया। दरवाजे पर दस्तक दो। दस्तक सुनते ही जैसे दिलचंद दरवाजा खोला वैसे ही उसकी नज़र जीवनबाबु पर पड़ी। वह डर गया। वह अपनी नज़र जमीन पर गड़ाते हुए कहा – “मुझे माफ कर दीजिए जीवनबाबु। मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई है ” ।जीवनबाबु -“माफी तो मुझे मांगना चाहिए। रुपा को लाने में जरा देर हो गई है “।
दिलचंद जीवनबाबु को समझ नहीं पाया। वह हाथ जोड़ कर जीवनबाबु के पांव पे गिर कर अपनी गलती की क्षमा माँगने लगा। जीवनबाबु – “मेरी पत्नी पर बुरी नजर तूने इसलिए डाली कि मैं गरीब हूँ। तुम्हें भला मैं क्या कर सकता हूँ “।दिलचंद – “बस! बस! मुझे और शर्मिंदा नहीं करे जीवनबाबु। मैं अपनी दौलत के दम पर आपकी इज्ज़त व भाभी जैसी माँ को अपमान करने का दुःसाहस किया। मै भूल गया था कि मेरी भी दो जवान बेटियाँ है। जीवनबाबु आप मुझे इस गलती की कठोर सजा दे कर मुझे लज्जित करे। मैं इसी क़ाबिल हूँ। इतना कह कर दिलचंद दोनों के पांव पकड़ कर रोने लगा। जीवनबाबु – “आज मेरी कदमों में तेरी शान शौकत सब झुक गया।आज के बाद तुम किसी गरीब पर अपनी बुरी निगाहे डालने से पहले यह सोच लेना कि तेरी घर में भी बेटी या बहने होगी।
इतना कह कर जीवनबाबु अपनी पत्नी रुपा को ले कर वहाँ से चल पड़े। दिलचंद बनिया उन दोनों को देखता ही रह गया।
दम नहीं तुझ में
September 26, 2020 in शेर-ओ-शायरी
अरे पागल आशिक़ बस इतने में ही तुम घबड़ा गए।
ज़ुल्म के दौड़ आया ही नहीं तुम अभी से घबड़ा गए।।
गर दम नहीं
September 26, 2020 in शेर-ओ-शायरी
प्यार भी करती हो ज़माने से भी डरती हो।
गर दम नहीं है तो दो नाव पे क्यों चढ़ती हो।।
इश्क़ फरमाते है
September 26, 2020 in शेर-ओ-शायरी
चलो हम तुम इश्क़ फरमाते है।
ज़माना यों ही जल जल मरते हैं।।
दिल है कि मानता नहीं
September 25, 2020 in शेर-ओ-शायरी
इश्क़ हम करते कहाँ है ए दिल ही फिसल जाता है।
दिल को क्या समझाएं जब देखो बर्बाद हो जाता है।।
वश
September 25, 2020 in शेर-ओ-शायरी
ए अमित इश्क़ भी क्या बीमारी हैं।
इश्क़ पे वश न हमारी है न तुम्हारी है।।