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इक नज़्म है जिसे हरपल गुनगुनाता हूँ

इक नज़्म है जिसे हरपल गुनगुनाता हूँ
कोरे कागज पै स्याही सा बिखर जाता हूँ

हर्फ़ हालातों में ढलकत कुछ कह देते है
कोई सुनता है तो मैं संवर जाता हूँ

कोई साखी है तेरे मैखाने में
जो पिलाती है तो बहक जाता हूँ

मकरूज है जिंदगी तेरी मोहब्बत की
चंद सिक्कों में ही मैं लुट जाता हूँ

छिड़ी है जंग जज्बातों में आंखो से निकलने को
बनकर अक्स रूखसारों पै जम जाता हूँ

रंग ओ रोशनी की चाहत है किसको
अंधेरों में आहिस्ते अक्सर गुजर जाता हूँ

क्या छुपा है जो मैं अब कहूँ तुझसे
नज़्म ए जिंदगी हर रोज लिखे जाता हूँ

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