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इन्तज़ार

कहाँ कभी ऐसा किसी ने सोंचा था
एक पीङित, शव से विस्तर साझा करेगा।
यह प्रकृति का कहर, या बढती आवादी की लहर
जिन्दगी और मौत, जैसे संग-संग, गयी हो ठहर।
एक तरफ शान्त, बिना हलचल किए
बंद, निश्चिंत पङी, रूकी किसी अपने के इन्तज़ार में ,
आ कर, कर दे शायद, मेरा अंतिम संस्कार
दूसरी तरफ़, डर-दर्द से पीङित, सहमी बंद पलक
शान्त, पर मन में छटपटाहट लिए
आए कोई अपना, मुझे राहत दिलाए
इस जा चुके, मेहमान के आगोश से, बाहर निकाल
संक्रमण मुक्त होने के इन्तज़ार में ,
दोनों दो लोक के निवासी,
संग-संग पङे, पहर-दर-पहर।

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