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इल्तज़ा क्या करे।।

इल्तज़ा क्या करे कुछ न बाकी रहा।
न वो महफिल रही न वो साथी रहा।।

इस क़द्र जिंदगी भी खफा हो गई।
साँसे चलती रही कुछ न बाक़ी रहा।।

जख़्म देकर वो कहते है मिलते नहीं।
हम कहे क्या उन्हें इतना काफी रहा।।

मंज़िलों का शहर मेरी किस्मत न थी।
इक मुसाफ़िर था मैं इक मुसाफिर रहा।।
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जो उम्र भर रहे थे हम तनहा यहाँ।
था सबब कुछ नहीं मै बेवजह ही रहा।।

रोशनी इक मिली थी फिर सहारा हुआ।
पर ये मौसम कहा तक मुआफ़िक रहा।।

वो कहतें है साहिल तुम मुकम्मल हुए हो।
पर हक़ीक़त तो है की सब तबाह ही रहा।।
@@@@RK@@@@

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