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ए जीनेवाले सोच जरा….!

जीनेवाले सोच जरा….!

मरने के लिए जीते हैं सब,
फिर भी मर मर कर जीते हैं.
यहाँ कभी मन की प्यास बुझी,
प्यासे ही सब रह जाते हैं.

जीनेवाले सोच जरा,
ऐसा जीना क्या जीना है,
गर मर मर कर यूं जीना है,
तो जीकर भी क्या करना है.

जग जीवन के जन्जालों मे,
ना समझ सका ख़ुद को मानव,
चिंताओं व्यर्थ व्यथाओं की,
गाथाओं मे खोया मानव.

कुछ ऐसे दीवानेपन में,
मेरे भी जीवन मे इक दिन,
जागा जीवन का अर्थ नया,
जब किस्मत से अनजाने मे,
ख़ुद ’  को खोया,
सबकुछ पाया……….!

               विश्व नन्द.

 

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