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कटघरा

हम सबके हिस्से में अपने हक़ की ज़मीन क्यों नहीं,
अब जो कुछ है यही है इसबात पर यकीन क्यों नहीं,

रिश्ते उलझे हैं इस कदर के सुलझने को तैयार नहीं,
आपसी सम्बन्ध सारे आज धागे से महीन क्यों नहीं,

जिस्म पे पहनने वाले हर एक कपड़े का कारीगर है,
जो इज्जत के कागज़ को सिले वो मशीन क्यों नहीं,

कटघरा अपना है और मुजरिम भी और कोई नहीं,
इस गिरेबान में झांकते हाथों में आस्तीन क्यों नहीं,

मिलकर देखा कितनों से जो कुछ अनोखा रखते हैं,
बताओ तो ‘राही’ कलम में हुनर बेहतरीन क्यों नहीं,

राही अंजाना

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