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करोना और गरीबी

चारो तरफ , करोना का क़हर था। सभी लोग भयाक्रांत की आगोश में समाया हुआ था। किसी को किसी से वास्ता नहीं था। लोग एक दूसरे के नजदीक जाने में भी कतराते थे। उसी समय एक दस वर्ष की गीता रोज की तरह रास्ते के फुटपाथ पर एक मैली चादर बिछा कर भीख मांगने बैठ गई। लोग आते जाते रहे मगर उस मासूम से दो गज़ की दूरी बना कर चले जाते थे। सुबह से शाम हो गई लेकिन, किसी ने उसे एक रुपये तक नहीं दिया। वह मायूस हो कर रास्ते के एक तरफ जा कर एक पेड़ के नीचे बैठ गई। आने जाने वाले को बड़ी गौर से निहारती थी। इसलिए कि, किसी को मुझ पर शायद तरस आ जाए ताकि कोई एक रुपया भी दे दे। जब आश निराश में बदलने लगी तब उसे नींद आने लगी। जब रात के ग्यारह बजी तब उसे भूख सताने लगी। वह करे तो क्या करे। कुछ देर बाद उसे आंख लगने ही वाली थीं कि, उसके कानों में शादी के बाजे सुनाई पड़ी। वह मासूम उसी बाराती के संग चल पड़ी। शायद वहाँ उसे खाने को कुछ मिल जाए। जब बारात अपनी जगह पर पहुँची तब उसी बाराती के संग गीता भी अंदर में प्रवेश करना चाही। मगर, उसे अंदर जाने नहीं दिया। क्योंकि उसके कपड़े गंदे थे। उसे करोना कह कर बाहर चले जाने को कहा। वह मासूम मायूस हो कर गेट के बाहर खड़ी हो गई। अंदर अमीरों की खान पान चलता रहा। वह मासूम सभी को देखती रही। वे सभी अन्न को आधा खा कर कूड़े दान में डालता रहा। दूसरे तरफ कोई भूखा बड़ी गौर से देखता रहा। वह कूड़े दान के नजदीक जा कर अमीरों के जूठन से ही अपनी पेट की आग बुझाई। फिर उसी जगह पहुँच गई जिस जगह से उठ कर अमीरों के बाराती में शामिल हुयी थी। जब सुबह उसे आँख खुली तब उसे सिर में दर्द हो रहा था। वह एक डाक्टर के पास पहुँची। डाक्टर उसे बिना टेंपरेचर जांचे ही उसे यह कह दिया – लगता है तुम करोना के शिकार हो गई हो। इतना सुन कर वहाँ से चल पड़ी। रास्ते में सोचने लगी – क्या सही में मैं करोना के शिकार हो गई हूँ? अगर शिकार हो गई हूँ तो करोना ही मेरे लिए भगवान है। कम से कम इस निर्दयी संसार से दूर तो हो जाउँगी।

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