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कविता

” मै ही तो हूँ- तेरा अहम्
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मै ही तो हूँ
तुम्हारे अंतरात्मा में
रोम रोम में तुम्हारे |
मैं ही बसा हूँ हर पल
तुम्हारे निद्रा में जागरण में |
प्रेम में घृणां में उसांसो से
लेकर तुम्हारे उर्मियों तक |
मैं हूँ बस मैं ही हूँ
न पुर्व न पश्चात तेरा
कोई था न होगा |
एक मेरे सिवा तुम्हारे
एहसास के परिसीमन
के दायरे का कोई अंत नही.
और उस अंतहीन मर्यादा की
आखरी रेखा तक विराजमान हूँ |
मैं मेरा अस्तित्व अनादि है
कुरूवंश से लेकर प्रत्येक
विनाश की जड हूँ मैं
सृष्टि की रचना का द्योतक हूँ मैं|
अंगार हूँ श्रृंगार हूँ मै
अमृत हूँ अवतार हूँ मैं |
तुम्हारे त्याग में तपश्या में
ग्यान में अनुराग में
मैं हूँ मैं हूँ मैं ही तो हूँ |
तुम सदा सर्वदा हर सांस के साथ
मै मै मै करते रहते हो
फिर भी मुझे पहचानते नही !
तुम्हारे आज में कल में घर में
बाहर में जीवन में मृत्यु में |
मैं ही तो हूँ |
सबने त्याग दिया मानव तुझको
पर मै ने आलिंगन बद्ध रखा तुझे
प्रारंभ से प्रारब्ध तक |
मैं हूँ मैं ही तो हूँ तेरा अहंकार ||
उपाध्याय…

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