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कविता

खुली हुई खिड़कियों से झांकते ही रह गये
कट गया कोई मनहूस ताकते ही रह गये |
गिरने का हद बढता गया जाना नही कभी
गैरों की बस औकात आंकते ही रह गये ||
अपने भले की बात में कुछ ना रहा खयाल
औरों की हसरतों कुचलते ही रह गये |
ऊँचाइयों पर पहुंच देखा पैरहन मतिहीन
कुछ भी न आया हाथ बस मलते ही रह गये ||
उपाध्याय…

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