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कविता

सो रहा कई रातों का जगा
तुम आज मुझे जगाना मत |
शब्दों के घाव बड़े मतिहीन
उर को मेरे पहुँचाना मत ||
होती रिश्तों की डोर नरम
कदापि इसे आजमाना मत |
होते है कान दिवारों के
खुद को भी राज बताना मत ||
छल क्षद्म भरा सारा जग है
मुझसे तुम नेह लगाना मत |
यदि मन मुझसे लग जाये तो
नीज नेह भी मुझे जताना मत ||
उपाध्याय…

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