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कहते तो खुद को आशिक-ए-पर्वरदिगार थे,

आसमाँ तले जो बैठे हैं चाँदनी के मुन्तजिर,
आपकी  जुल्फ़ों में चाँद के आसार ढ़ूढ़ते हैं!!

कल तलक जो जीते थे फकीराना सी जिन्दगी,
हर  ओर  आज  वो  ही  घर  द्वार   ढ़ूढ़ते  हैं!!

खुद के साये से भी जो डरते थे शब-ए-श्याह,
आज   आपके   साये   में   संसार   ढ़ूढ़ते  हैं!!

कहते तो खुद को आशिक-ए-पर्वरदिगार थे,
फिर हर सम्त छुपने को क्यों दीवार ढ़ूढ़ते हैं!!

शजर जो काट देते थे बीज बोने से पहले ही,
छाँव की खातिर ही क्यों बाग बारम्बार ढ़ूढ़ते हैं!!

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