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किताबे

किताबें
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किताबे गुमसुम रहती हैं
आवाज़ नहीं करती।
सुनाती सब कुछ है लेकिन
बड़ी खामोश होती है।
छुपा लेती है सब कुछ बस,
घुटन वो खुद ही सहती हैं।

दफन कर लेती बेचैनी,
दुख वो खुद ही सहती हैं।

लोग जो कह नहीं पाते,
किताबों में वो लिख जाते।

खुद तो निश्चिंत हो जाते,
किताबों को वो भर जाते।

अगर कोई झांकना चाहे
किताबें आईना बनती।

अगर कोई देखना चाहे
अक्स हर शख्स का बनती।

हृदय का बोझ ढोती है ,
बड़ी बेचारी होती है।

किसी दुखियारे प्रेमी सी,
किताबें बहुत रोती हैं।

निमिषा सिंघल

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