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कुछ तो

हर रोज़ उम्मीदों का बोझ लेकर बाबा
खेतों तक जाते हैं।
चिंता की लकीरें, सूखी कुछ- कुछ गीली आंखे
लेकर लौट आते हैं।
पता है छिपाते हैं कुछ, चाह कर
भी ना बता पाते हैं कुछ।
‘सब ठीक होगा’ की आस में न पूछ पाते हैं कुछ।।
मालूम है कि दरारें बची हैं खेतों में
फिर भी उन्हें भरने चले जाते हैं,
कुछ आशा से कुछ निराशा से।।
आज हैं जल्दी में बाबा कुछ शायद
पैग़ाम आया है ” बड़े सरकार” का
कुछ इंतज़ाम कर रखा है तुम्हारी” पैदावार “का
सूरज तो लौट रहा है पर बाबा क्यों ना लौटे हैं?
शायद फिर आज विधाता ने अन्नदाता को तोड़ दिया है।
अन्न के अभाव में रिश्ता रस्सी और पेड़ से जोड़ दिया है।।

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