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गंगा

कहने को है अमृत की धारा,
कूड़े से पटा हुआ उसका जल सारा ।
पाप धुलने का मार्ग बन गई गंगा,
हर किसी के स्पर्श से मैली हो गई गंगा ।
कभी प्रसाद की थैली के नाम पर,
कभी फूलों के बंडल के नाम पर,
कभी कपड़े के गट्ठरों के नाम पर,
भरती चली गई गंगा ।
धो डालो सारे रीति रिवाज,
जो करते है गंगा को गन्दा,
अब मिलकर साफ करेगा गंगा को हर एक बन्दा ।
समय आ गया है अब बदलने गंगा की मूरत,
गंगा हमारी मां जैसी,
अविरल है उसकी मूरत ।
प्रण करो न डुबकी लगाएंगे,
ना प्रसाद चढ़ाएंगे,
सब मिलकर गंगा को साफ बनाएंगे,
और थोड़ा सा जल हाथ में लेकर अब उसका अस्तित्व बचाएंगे।

अंशिका जौहरी

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