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गजल

2122 1212 22

कुछ दिनों से खफा-खफा सा है ।

चाँद मेरा छुपा-छुपा सा है ।।

 

कुछ तो जिन्दा है जिस्म के अंदर ;

और कुछ तो जुदा-जुदा सा है ।

 

जब से’ उतरा हूँ’ होश की तह में  ;

होश तब से हवा-हवा सा है ।

 

सादगी से बदल गयी रंगत  ;

ये असर भी नया-नया सा है ।

 

उसकी’ सांसों ने’ छू लिया था कल ;

जिस्म से रूह तक छुआ सा है ।

 

उसने’ भी आग को हवा दी थी ;

हर तरफ जो धुँआ-धुँआ सा है ।

राहुल द्विवेदी ‘स्मित’

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