2122 1212 22
कुछ दिनों से खफा-खफा सा है ।
चाँद मेरा छुपा-छुपा सा है ।।
कुछ तो जिन्दा है जिस्म के अंदर ;
और कुछ तो जुदा-जुदा सा है ।
जब से’ उतरा हूँ’ होश की तह में ;
होश तब से हवा-हवा सा है ।
सादगी से बदल गयी रंगत ;
ये असर भी नया-नया सा है ।
उसकी’ सांसों ने’ छू लिया था कल ;
जिस्म से रूह तक छुआ सा है ।
उसने’ भी आग को हवा दी थी ;
हर तरफ जो धुँआ-धुँआ सा है ।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’