अभी उम्र ही क्या थी,
वक्त ने बांधे घुंघरू पांव में।
अभी बचपन पूरा बीता नहीं,
मां की आंचल के छांव में।
हुई अवसर मौकापरस्तों की,
चंद रुपयों के अभाव में।
मजबूरियां पहुंचाईं कोठे पर,
यादें दफन रह गई गांव में।
इन वहशी खरीदारों के बीच,
जवानी लूट गई मोलभाव में।
इनके जख्म सहलाने के बजाय,
एक और घाव दे जाते घाव में।
खत्म करो यह तवायफ लफ्ज़,
क्यों लगाते मासूम जिंदगी दांव में।
देवेश साखरे ‘देव’