प्यारी गौरैया!
आज तुम्हें इतने दिनों बाद अपनी छत पर देख अपने बचपन के दिन याद आ गए ,तब तुम संख्या में हमसे बहुत ज्यादा थीं, आज हम हैं ज्यादा नहीं पर कुछ पेड़ हैं
लेकिन तुम सब अब पता नहीं कहां चली गईं।
शायद हमारे घरों ने तुम्हारे घर छीन लिए लेकिन सच कहूं गौरैया! जब हमारा नया घर बना था तो तुम्हारी याद ही नहीं आयी , आज जो आंसू आए वो शायद उस समय आते तो कुछ करती मैं तुम्हारे लिए क्योंकि,
मुझे याद है जब मैं भैया दीदी सब स्कूल चले जाते थे तो तुम होती थीं मां के साथ आंगन में चीं- चीं करती हुई। तुम और तुम्हारे साथी सुबह हमसे पहले हमारे आंगन में आ जाते थे, हमारे दिए गए या ऐसे ही छोड़ दिए गए अनाज के दानों से तुम अपना पेट भर लिया करतीं थीं और इधर- उधर पंखों की फड़फडाहट से सुबह से दोपहर का सन्नाटा, जब तक हम वापस ना आ जाते तोड़ा करतीं थीं
तुम हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गईं थीं।
घर के अंदर उपस्थिति का , तुमसे अपनेपन का एहसास आज होता है जब तुम इस घर में नहीं दिखती हो।
गाहे- बगाहे जब तुम आती हो तो पता नहीं क्यों रूठी हुई लगती हो।
लेकिन “प्यारी गौरैया” आज मां अकेली हो जाती हैं हमारे जाने के बाद और तुम भी नहीं होती हो उनके साथ ।
आज तुम्हारी चीं-चीं की आवाज़ सुनना है मुझे
‘एक बार आ जाओ ‘ तुम्हारे लिए मैं घोसला बनाऊंगी
ये मेरा वादा है तुमसे प्यारी गौरैया!
कंचन द्विवेदी