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चिर आनन्द की अभिलाषा

चिर आनन्द की अभिलाषा में,

चंचल मन व्याकुल रहता है,

अंधियारे-उजियारे में,

कुन्ज गली के बाड़े में,

देवालय में,जीव-निर्जिव सारे में,

ढूँढ़़-ढूँढ़ थक हारी मैं,

इस जग की सारी कृति,

कराहती  पुकारती आनन्द की,

चाह में धून अपनी सँवारती,

व्याकुल मन पल-पल गढ़े,

सपनो के ताने-बाने बुने,

नदिया भी व्याकुल कल-कल करे,

हवा भी सन-सन करे,

जीव सारे कर्मों में  लगे,

आनन्द  कैसे  कहाँ  मिले,

सोच-सोच कर हारी मैं,

सुना हरि नाम की प्याला में,

विष पीकर भी मीरा तृप्त हुई,

हरि नाम की माला ,

मैं पल-पल फेरू,

पग-पग  हेरू,

कान्हा -कान्हा पुकारू मैं,

कान्हा मन में विलीन पड़े हैं,

कैसे उन्हें पहचानू  मैं ।।

https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/09/09/

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