देखो उभर कर ज़माने का कैसा चित्र आया है।
कल्पना से परे भयावह कैसा विचित्र आया है।
गले लगा कर पीठ में खंजर उतार दिया उसने,
मैं तो समझा मुझसे मिलने मेरा मित्र आया है।
साँस लेना है दूभर, फ़िज़ा में इतना ज़हर घुला,
साँसे बंद हुई तो जनाज़े पर लेकर इत्र आया है।
इंसानियत शर्मसार हो, कुछ ऐसा गुज़र जाता,
जब भी लगता कि अब समय पवित्र आया है।
चेहरे पर चेहरा चढ़ाये फिरते हैं, लोग यहाँ पर,
रक्षक ही भक्षक बन बैठे, कैसा चरित्र आया है।
देवेश साखरे ‘देव’