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तन्हाई

न जाने क्यों एक तन्हाई सी छा रही है,
ज़िन्दगी एक कहानी सी बनती जा रही है।
न जाने क्यों ये दिल खुद को अकेला पा रहा है ,
हकीकत से परे ही जा रहा है।
आँखों से दर्द बह रहा है,
पानी तो सिर्फ एक जरिया है।
न जाने तन्हाई का कितना बड़ा दरिया है।
इन राहों में बहुत सी ‘जानें’ हैं,
पर दुःख तो यह है कि सभी अनजाने हैं।
बस!चल पड़ी अब सच की राह पर,
सच्ची दुनिया पाने की चाह पर।
पर ये सच अकेलापन क्यों है लाया?
हाँ! क्योंकि मैंने झूठ को था अपना बनाया।
अब सच की राह पर झूठ पिघलता जा रहा है,
और पिघलते-पिघलते सच उगलता जा रहा है।
फिर सच की राह से,सच्चाई की चाह में,
पहुंची हूँ एक ऐसी जगह जहाँ दुनिया की सच्चाई है
इस बार तो मात झूठ की परछाई ने खाई है।
नहीं पहुँची हूँ मंदिर,मस्जिद या गिरिजाघर,
पहुँची हूँ एक अनाथ के दिल के घर।
उनकी तन्हाई देखकर मुझसे है मेरी तन्हाई रूठी,
आखिर वो थी ही झूठी।
अनाथ होते हैं तन्हा फिर भी जीते हैं हर एक लम्हा।
सना होता है उनका दिल प्यार के खून से,
उत्साह, इच्छा और जूनून से।
और मैं कर रही थी मेरे तनहे होने की बात,
वो भी तब जब मेरे अपने हैं मेरे साथ।

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