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तन्हाई

बैठा हुआ था मैं निरुत्तर सा होकर,
कि किसी की आवाज़ आई
पूछा, तो कही, मैं हूँ “तन्हाई”
आपका साथ निभाने को आई
शून्यता सी होठों पे
मुस्कुराहट ने धाक जमाई
हँसी आई, कहा मैंने
तुम तो खुद हो तन्हाई
फिर साथ कैसे..(?)
जो खुद हो अकेला
कैसे लगा सकता वो मेला
हँसी लेकर होठों पे
तन्हाई ने कहा बड़े प्यार से
कौन साथ निभाता है यहाँ पे
तन्हा आता है और तन्हा जाता है यहाँ से
अर्थात, मेरे अलावा दूजा कोई साथी नहीं
सभी दृश्य है माया के, सच्चा कोई संगी नहीं
यहीं के लिए प्यार है, यहीं के लिए दौलत
यहीं के लिए मुहब्बत, यहीं के लिए चाहत
छोड़ कर सब कुछ यहीं पे, याद आती “तन्हाई”
मेरे साथ ही आगमन यहाँ पे, मेरे साथ ही विदाई
जन्म से मरण तक तो “तन्हाई” ने साथ निभाई

 

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