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तलाश

खुद को तलाशते गुमनामी में कहीं खो न जाऊँ।
शोहरत की हसरत में गुमनाम कहीं हो न जाऊँ।

चढ़ते सूरज को तो सारी दुनिया सलाम करती है,
डरता है दिल की मैं अंधेरे में कहीं सो न जाऊँ।

सितारे की मानिंद रौशनी आती रहे, धुंधली सही,
भीड़ में मगर, नज़रों से ओझल कहीं हो न जाऊँ।

सुना है, हाथों की लकीरों में नसीब छिपा होता है,
अश्कों से मैं हाथों की लकीरें कहीं धो न जाऊँ।

यूँ तो हमेशा प्यार के ही फूल खिले, पर डरता हूँ,
दिले-ज़मीं पर नफ़रत के बीज कहीं बो न जाऊँ।

देवेश साखरे ‘देव’

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