मुखौटे सजाये फिर रहे हो आजकल.
दिल में जख्म़ लिये जिये जा रहे हो.
हर किसी ने ओढ़ रक्खा मतलबी नकाब.
एक दुशरे को दर्द दिये जा रहे है।
न मंसूबा मेरी जवां हसरतें मुल्तवी हो रही.
मेरी ख्वाहिशे मुखौटा बन गई है।
हसता हूंँ, सिर्फ हसाने को आपकों.
भला कौन हँसे मुखौटे लिऐ.
हम नकाब लिए जिये जा रहे.
अवधेश कुमार राय “अवध”