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धुँआ

पूरे शहर को इस काले धुंए की आग़ोश में जाना पड़ा,
क्यों इस ज़मी की छाती पर फैक्ट्रियों को लगाना पड़ा,

चन्द सपनों को अपने सजाने की इस चाहत में भला,
क्यों उस आसमाँ की आँखों को भी यूँ रुलाना पड़ा,

अमीरों की अमीरी के इन बड़े कारखानों में घुसकर,
क्यों हम छोटे गरीबों के जिस्मों को ही यूँ हर्जाना पड़ा॥

राही (अंजाना)

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