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नक़ाब

नक़ाब से जो चेहरा, छिपा कर चलती हो।
मनचलों से या गर्द से, बचा कर चलती हो।

सरका दो फिर, गर जो तुम रुख से नक़ाब,
महफिल में खलबली, मचा कर चलती हो।

तेरे आने से पहले, आने का पैगाम आता है,
पाज़ेब की छन – छन, बजा कर चलती हो।

तेरी एक दीद को, तेरी राह पे खड़ा कब से,
तिरछी नज़रों से दीदार, अदा कर चलती हो।

डसती है नागिन सी, तेरी बलखाती गेसू,
पतली कमर जब, बलखा कर चलती हो।

देवेश साखरे ‘देव’

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