कल-कल बहती नदिया कहलाती हूँ मैं,
पृथ्वी के हर एक जीव को महकाती हूँ मैं,
जोड़ देती हूँ जिस पल दो किनारों के तट,
लोगों के लिए फिर तटिनी बन जाती हूँ मैं,
सर- सर चलती सबकी नज़रों से गुजर के,
सुरों सी सरल सहज सरिता बन जाती हूँ मैं,
सबकी प्यास बुझाती गहरे राज़ छुपाती हूँ,
खुद प्यासी रहके सागर से मिल जाती हूँ मैं,
धरती पर मैं रहती और हरियाली फैलती हूँ,
चीर पर्वतों का सीना रौब बड़ा दिखाती हूँ मैं।।
राही अंजाना