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ना खालिश होती

काश! तुम मेरी
मजबूरियाँ समझ पाते
जो मेरे दिल में था
वो कह पाते
क्यूँ सिमट जाती मेरी
ज़िन्दगी यूँ कोने में
क्यूँ दर्द होता मेरे सीने में
ना हम अपनी मजबूरी का
हवाला देते
ना घूंट कर अश्कों का
प्याला पीते
रहा करते हम तेरे सीने में
ना खालिश होती
यूँ मेरे ज़ीने में ।

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