मैं वहीं हूँ
जहाँ तुम आए थे
चमरौला जूता ठीक कराने
‘छुट्टे पैसे नही हैं‘ कह कर चले गए थे
—पचास साल पहले |
आज चमचमाते जूतों पर
पॉलिश कराने आए हो
— पचास साल बाद |
भरी है जेब
हजार – हजार के हजारों नोटों से
छुट्टा पैसा एक नहीं
माँगने की जुर्रत भी कौन करेगा ?
तुम्हारा आना ही बहुत है यहाँ
जमीन पर टिकते कहाँ हैं पाँव
हवाई उड़ाने भरते हो
मैं रोज वहीं से देखता हूँ
जहाँ
चमरौला जूता ठीक कराने आए थे
पचास साल पहले|
जूते गाँठना मेरा धँधा है
मरे डंगरों की खाल उतारना भी |
गाय के मांस की गंध से भड़की भीड़ के सारथी !
तुम्हारे घोड़े
घास नहीं
आदमी की हड्डियाँ चबाने लगे हैं
इन्हें अस्तबल में रखना जरूरी है|
बीफ और मीट का स्वाद जान गए हैं
वैष्णव और मांसाहारी
ऐसा न हो कि
भगदड़ में तुम्हारे जूते की कील उखड जाए
लहू- लुहान हो जाएँ पैर
अब नहीं मिलेगा
मुझ जैसा ठोक- पीट करने वाला
पचास साल बाद |
– डॉ.मनोहर अभय
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