तीन पहर बीत चले
चांद कुछ दूर हुआ
कुछ मिल गया तम में
कुछ छूटा रह गया
आकृति बिखर गयी
धुंधली सी
विक्षिप्त सी
फैल गयी कहीं
रेंगती परछाई सी
समय बढ चला
चौथे पहर की ओर
आकृति फिर बदल गयी
और खूब दूर हुई
चांद की
एक विचार सी
हृदयों से गुजरती
क्षणिक
यहां से वहां
और वहां से कहीं और
गमन करती है सदा
यूंही पहर बीतते गये
आकृति फिर उदित हुयी
नयी सूबह लिए।
– मनोज भारद्वाज