जीवन भर
बिना थके,मुस्कुराते हुए
अपने संघर्षरत बच्चे को
कांधे पर उठाकर चलने वाले
पिता का पर्याय बन सके,
ऐसा बिंब,
रचा ही नहीं गया अबतक काव्यशास्त्र में।
दरअसल,कविताओं में
इतना सामर्थ्य नहीं कि वे उठा सकें
‘पिता’ शब्द का भार अपने कंधो पर..!!
©अनु उर्मिल ‘अनुवाद’
(20/06/2021)