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प्रवासी की पीड़ा

भारतवासी बना प्रवासी, कैसा किस्मत का खेल है
मजदूरों की भीड़ से भरी, यह भारतीय रेल है
घर जाने की जल्दी में, मची ये रेलमपेल है
भाग रहे गृह राज्यों में ये, जैसे यहां कोई जेल है

ना ही खाना ना ही छत है, भागना ही इक रास्ता है
लाकडाउन ने कर दी सबकी, हालत बड़ी खस्ता है
मरे भूख से या कॉविड से, डर नहीं बिल्कुल लगता है
बस अपनो के बीच कैसे भी, पहुंचे उसकी चेष्टा है

सरकारों की मजबूरी है, मानवता शर्मिन्दा है
जिसने विकास की नींव लगाई, हालत ज्यो भीखमंगा है
आओ हम सब हाथ बढ़ाए, कोविड़ से लडना सिखलाये
ना समझे हम उन्हें प्रवासी, इक सूत्र में बंध जाये

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