जा रहा हूँ आज फिर परदेश
जहाँ से आया था
धर प्रवासी मजदूर का वेश
छोंड़ी थी जो गलियां यह सोंचकर मैंने
के कभी ना लौटकर अब आऊंगा
घर की बची रूखी-सूखी ही खाऊंगा
जब नहीं मिला गांव में काम
और जेब में फूटी कौड़ी तो
निकल पड़ा छोंड़ पत्नी और मौड़ी
मौड़ी का ब्याह इसी साल करना है
मौड़े का घर भी तो बसाना है
पत्नी की बीमारी का इलाज कराकर
ताउम्र उसी संग रहना है
जिम्मेदारियां निभाते हुए अगर
जिंदा लौट आया
काल का ग्रास ना जो बन पाया तो
लौट आऊंगा फिर गांव की
इन्हीं गलियों में
बुढ़ापा काट लूंगा पत्नी के
संग झोपड़ी में!!