मनुष्य कहां कोई सम्पूर्ण
जनता की नजर में सब अपूर्ण
दुनियां जिन्हें पूजती बारम्बार
स्वदेश में उनके निंदक हजार
तिनके की तरह ठुकराई सत्ता
कभी भी न पाया कोई भत्ता
निठल्ले करते उनकी बुरी बातें
स्वयं के दामन अच्छाई ढूंढते रह जाते
बापू ने तो दी सौ सौगातें
अंधों को अंशु न नजर आते
दिन रात बैठ कुछ बड़बड़ाते
खुद कहे शब्द याद न रख पाते
शैतान सब में बुराई ढूंढ ही लेते
हंस पुरुष सभी को अच्छा बताते