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बीतता गया समय

बदलती प्रकृति के
निराले खेल,
कितनी उमंग से उगी थी
बरसात में,
कद्दू, ककड़ी, लौकी की बेल।
मौसम बदलते ही
मुरझाने लगी, सूखने लगी
छोड़ गई अपने निशान,
बीतते रहे ऐसे ही दिन-वार
ताकता रह गया इंसान।
कभी हरा-भरा बना
कभी मुरझाया,
कभी हारा,
कभी महसूस की विजय
ऐसे ही बीतता गया समय।

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