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भेड़िए और हिरणी

वो कोई जंगल या कोई सुनसान गली ना थी

भीड़ का मंजर था और वो भी अकेली ना थी

भीड़ से ही निकला था इक झुंड भेड़ियों का

उनके लिए वो शिकार थी कोई लड़की ना थी

भागी वो इधर से उधर किसी हिरणी की तरह

मगर चक्रव्यूह से भागने की कोई जगह ना थी

हुई तो थी थोड़ी बहुत उस भीड़ में हलचल

मगर वो इंसान थे जिनमे इन्सानियत ना थी

चिल्लाती रही, भेड़िये ले गए उठा कर उसे

बहरों की भीड़ ने उसकी आवाज़ सुनी ना थी

सब ने सोचा छोड़ो हमें क्या इस झंझट से

प्यारी तो थी मगर वो किसी की सगी ना थी

फेंक गए वो उसे उसकी आत्मा को नोच कर

पूरे शहर में इक अजब सी बेचैनी क्यों थी

गूंगा बहरा था जो शहर कल भेड़ियों के सामने

आज नारे लगे खूब मगर खून में रवानी ना थी

सुना है के परसों लटक जायेगी वो पेड़ से

सब को लगता है की वो ही तो बेहया थी

अगर बनाने ही थी ऐ ख़ुदा भड़िये तुझ को

तो रहम करता ये मासूम हिरणियाँ बनानी न थी

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