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मन की आशा मुरझाई है

बाँधे कमर नई आशा से
फिर दिल्ली पंहुचा था वो
रोजी रोटी खोज रहा था,
बच्चों को भी भेज रहा था।
कई दिनों के बाद जिन्दगी
ढर्रे में आने वाली थी,
मगर वही फिर कोविड़ कोविड़,
होने चारों तरफ लगी,
रोजगार के पट हो डाउन,
होने को फिर है लॉकडाउन।
सुबह कमाते शाम हैं खाते
कभी कभी भूखे सोते हैं,
सुनकर बन्द लॉकडाउन को
भीतर ही भीतर रोते हैं।
भूख अलग से रोग अलग से
घूम घूम मुश्किल आई है,
लौट किस तरह जाऊँ फिर अब
मन की आशा मुरझाई है।

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