मन के दरवाजे में हजार चहरे छुपाये बैठ गया,
ढूढ़ न ले कोई मुझे बहार पहरे लगाये बैठ गया,
नज़रें मिलाईं कभी नज़रें बचाई उस ज़ालिम से,
फिर एक दिन भरे बाज़ार सहरे लगाये बैठ गया,
मरहम तो हर दर्द के पुड़िया में दबाकर रखे थे,
जाने क्यों बेशुमार ज़ख्म गहरे लगाये बैठ गया,
बहरे इतने मिले के सुनके भी किसीने सुना नहीं,
हार कर खुदा के खुमार में सर झुकाये बैठ गया॥
राही अंजाना