हाथों को अपने फैलाकर के
बाबूजी दे तो कहता हूं
कभी मेरे मुंख को देख जरा
मैं रोता बिलकता रहता हूं
उन ठंडी सीत हवाओं मे
उन कड़कती काली घटनाओं में
मैं डरा सहमा सा बैठा हूं
पन्नी छप्पर की छांव में
ना पांव में चप्पल होती है
ना सिर पे कमलिया होती है
बाबू कुछ दे दो खाने को
मेरी भूखी बहन वहां रोती है
यह रोज-रोज की मांगने की
तेरी आदत नहीं बदलती है
गाड़ी में बैठ के कहता है
सिस्टम की सारी गलती है
मैं अनपढ़ अबोध सा बालक बालक हूं
बाबूजी सिस्टम क्या जानू
मांगू तो पेट भर जाता है
मैं अभी तो अभी तो बस इतना मानूं
मैं तो बस हाथ फैलाता हूं
कभी कलम चलाना सिखाया ना
उन बड़े-बड़े स्कूलों में
कभी मेरा नाम लिखा या ना
क्या रखा बड़े स्कूलों में
उन फालतू फंड के रेलों मे
में पढ़ने की इच्छा काफी है
तू जा सरकारी स्कूलों में
पढ़ने की ललक तो होती है
पर खाने के भी लालेहै
राशन की जगह पर जाले
और किस्मत पर बड़े-बड़े ताले है