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रात अपना ही

रात अपना ही कोई
किस्सा बन जाता हूँ
दिन के उजाले में कोई
हिस्सा बन जाता हूँ
निकल तो जाता हूँ
बाज़ारों में कहीं
शाम के होते ही
न चलने वाला कोई
सिक्का बन जाता हूँ
राजेश’अरमान’

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