विचारों को जब बाँध रही थी,
अरमानों के साँचे ढाल रही थी,
खिन्न हुई, उद्वगिन हुई जब,
खुद को मैं आँक रही थी ।
विचारों को खोल चली जब,
निरन्तर प्रवाह से जोड़ चली जब,
आशा-निराशा छोड़ चली जब,
जीवन संग आन्नदित हूँ।
कर्तव्यो की जो होली है,
रंग-बिरंगी आँख मिचोली है,
संग मैं हूँ, जीवन की जो भी बोली है ।।
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