इश्क का दरिया जब ज़ेहन के समंदर से मिलता है।
दिल के साहिल से टकरा, गज़ल बह निकलता है।
हिज़्रे-महबूब का गम हो, या वस्ले-सनम की खुशी,
ज़ेहन में अल्फ़ाज़ों का सैलाब उफनता, उतरता है।
जिसने भी कभी इश्क किया, वो शायर ज़रूर हुआ,
इश्क रब से करता है, या फिर महबूब से करता है।
दिल से निकले जज़्बात, उनके दिल में उतर जाए,
हो गई गज़ल, फिर ज़रूरी नहीं क़ाफ़िया मिलता है।
देवेश साखरे ‘देव’