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“सप्तवर्णी छाँह”

आकांक्षाओं के तिमिर में स्मृतियों का बसेरा है
जीवन है अंधकार युक्त और खुशियों का सवेरा है
बीत जाती हैं कई शामें बिस्तर की सिलवटों में
लिहाफ ओढ़ कर यह वक्त गुजर जाता है
उंगलियों के पोर से आसमान को रंग कर
उत्कृष्ट महत्वाकांक्षाओं के भवसागर में हमने अंगुल को धोया है
समझ सके कोई ऐसे भाव प्रकट करने में
स्वयं को सप्तवर्णी छाँह में हमने खोया है।

कवयित्री: प्रज्ञा शुक्ला

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