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होते हम खूद ही दुःखों का जनक और मिथ्यारोपन लगाते गैरों पर ।

होते हम खूद ही दुःखों का जनक और मिथ्यारोपन लगाते गैरों पर ।
अपने व्यवहार प्रतिकूल संबंध बनाते, ये नहीं देख पाते हम ।
इसलिए तो जगह-जगह पे ठोकर खाते-फिरते हैं हम ।
निज स्वभाव भूलाके पर स्वभाव से सामंजयस स्थापित करने की कोशिश करते हम ।
अपनी निज स्वभाव भूलके पर स्वभाव से संबंध स्थापित करने में तुले रहते हैं हम
इसीलिए तो जग में दुःखों को जन्म देने वाले प्रथम व्यक्ति कहे जाते हैं हम ।
प्रसन्नता खूद पे निर्भर करती है,लेकिन हम पर व्यक्ति से प्रसन्नता पाने की कोशिश करते हैं
इसलिए तो जगत में ठोकर खाते-फिरते हैं हम ।।
हम अपने व्यवहार-स्वभाव से प्रसन्न क्यूँ नहीं होते ?
जो गैरों के व्यवहार-स्वभाव से प्रसन्न होने की आशा लगाये रहते हैं हम ।
आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान, आत्मसमर्पण, आत्मप्रोत्साहित
जैसे महान शब्दों को दुरूपयोग करते हम ।
अनमोल-सी जिन्दगी में मोल के कारण बिक जाते है हम ।
अपना सर्वस्व अस्तित्व लूटाके व्यर्थ में रोते हैं हम ।
जो नर हमारी भाव को न समझें,उसे ईश्वर की तरह क्यूँ याद करते हम ?
आत्मसम्मान गँवाके सकरात्मक ऊर्जा को भी गँवाते हम ।
आत्मसम्मान गँवाके नकरात्मक ऊर्जा को अपने अंदर क्यूँ भरते हम ?
जिन्दगी को जिन्दगी नहीं, जहनूम बनाते हम ।
होते हम खूद ही दुःखों का जनक और मिथ्यारोपन लगाते गैरों पर ।
— विकास कुमार

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