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ग़ज़ल

इक समंदर यूं शीशे में ढलता गया ।
ज़िस्म ज़िंदा दफ़न रोज़ करता गया ॥

ख़्वाब पलकों पे ठहरा है सहमा हुआ ।
‘हुस्न’ दिन-ब-दिन ख़ुद ही सँवरता गया ॥

‘इश्क़’ है आरज़ू या कि; सौदा कोई ।
दिल तड़पता रहा -— दिल मचलता गया ॥

क्या हो शिक़वा कि; ‘अनुपम’ यही ज़िन्दगी ।
‘ज़िंदा’ रहने की ख़ातिर ‘मैं’ मरता गया ॥
#anupamtripathi #anupamtripathiG
———- गोयाकि; ग़ज़ल है ! ———-

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