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ग़ज़ल

मैं ! जटिल था ; आपने , कितना सरल-सा कर दिया ।

सोचता हूँ ; शुष्क हिमनद , को तरल-सा कर दिया ॥

खाली सीपों का भला , बाज़ार में क्या मोल होता ?
आप ने बन बूंद–स्वाति , बेशकीमती कर दिया ॥

ये खुला–सा आसमां , मुझको डराता ही रहा ।
आपने आधार बन के , शामियाना कर दिया ॥

मैं ! लहर के साथ रहकर , टूटता…टकराता रहता ।
आपने पतवार–सा बन , धार पे अब धर दिया ॥

हौंसला था और उड़ने को , खुली परवाज़ थी ।
नेह का इक नीड़ देकर , ‘यायावर’ को ‘घर’ दिया ॥

उम्र–भर यादों के जुगनू , मन के पिंजरे में लिए ।
तम के सायों से घिरा : मैं , रौशनी से भर दिया ॥

मुक्तकों—छंदों—कता’ओं , सा पड़ा बिखरा था : मैं ।
आपने दिलकश बहर दे , इक ग़ज़ल-सा कर दिया ॥
: अनुपम त्रिपाठी

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